“गाँव की औरत सिर्फ रोटियाँ नहीं सेंकती, वो क्रांति का आटा गूंथ रही है”

लेखक:
अमित चौबे, ग्रामीण भारत और युवा चेतना से जुड़े विषयों पर लिखने वाले स्वतंत्र लेखक।

जब भी किसी ग्रामीण महिला की बात होती है, तो हमारे दिमाग में एक छवि उभरती है — सिर पर घूंघट, हाथ में बेलन, और दिनभर रसोई में जुटी हुई। पर क्या हमने कभी उसकी आंखों में झाँक कर देखा है? उन आंखों में सिर्फ परंपराओं की परछाइयाँ नहीं, बल्कि बदलाव की चिंगारी भी जलती है।

गाँव की स्त्री को सदियों से एक ढांचे में ढाल दिया गया — कि वो घर की लक्ष्मी है, त्याग की देवी है, सेवा की मूर्ति है। लेकिन कोई ये क्यों नहीं कहता कि वो बदलाव की जननी है, अपने भीतर एक नयी सदी लिए फिर रही है?

आज जब हम शहरों में महिला सशक्तिकरण की बातें करते हैं, सेमिनार और भाषणों का आयोजन होता है, तब भी एक गाँव की महिला अपने घर के चूल्हे पर रोटियाँ सेंकते हुए समाज के सबसे बुनियादी स्तंभ को संभाल रही होती है।

वो खेत में पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती है,
वो अपने बच्चों की फीस जुटाने के लिए रात में कढ़ाई करती है,
वो अपने सपनों को तोड़कर, दूसरों के सपनों को पालती है।

लेकिन अब समय बदल रहा है।

अब वो महिला सिर्फ सहने वाली नहीं रही।
अब वो पंचायत में खड़ी होकर सवाल कर रही है।
अब वो बैंक जाकर खाता खोल रही है, मोबाइल से पैसे ट्रांसफर कर रही है।
अब वो बेटी को स्कूल भेज रही है, और बेटे को यह समझा रही है कि बहन से बड़ा कोई नहीं होता।

गाँव की औरतें अब मौन नहीं, आंदोलन बन रही हैं।
और ये आंदोलन शोर नहीं करता — ये धड़कनों में गूंजता है।

एक समय था जब लोग कहते थे, “गाँव की औरत क्या कर लेगी?”
आज वही औरतें स्व-सहायता समूह (SHG) चला रही हैं,
ऑर्गेनिक खेती कर रही हैं,
रूरल स्टार्टअप खड़ा कर रही हैं।

जहाँ एक समय में वो सिर्फ घूंघट में छुपी रहती थी,
आज वो गूगल मीट पर ट्रेनिंग ले रही है,
सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूक कर रही है,
और गाँव की बाकी औरतों को भी बदलने के लिए तैयार कर रही है।

उसे किसी माइक की जरूरत नहीं है,
न किसी मंच की —
उसकी आवाज़ उसके कर्म हैं,
उसकी क्रांति उसकी चुप्पी में है।

आज आवश्यकता है कि हम उस “नज़रअंदाज़ की गई नायिका” को पहचाने।
उसे सिर्फ चुनावी वोट बैंक या कल्याण योजना का आंकड़ा ना समझें,
बल्कि एक समाज निर्माता, एक परिवर्तन वाहक मानें।

क्योंकि अगर गाँव की औरतें बदलती हैं,
तो पूरा गाँव बदलता है।
और जब गाँव बदलता है,
तब देश की आत्मा करवट लेती है।

आज का भारत तभी आगे बढ़ेगा,
जब उसकी गाँव की बेटियाँ, बहुएँ, माएँ,
अपना हक, अपनी पहचान, और अपना मंच खुद गढ़ेंगी।

लेखक: अमित चौबे
(ग्रामीण युवा चेतना और सामाजिक बदलाव की कहानियाँ लिखने वाले स्वतंत्र लेखक)

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